
विधायिका VS न्यायपालिका
जजों की नियुक्तियों को लेकर अक्सर कॉलेजियम सिस्टम पर सवाल उठते रहे हैं,और अब एक बार फिर से कॉलेजियम सिस्टम को लेकर सरकार और न्यायपालिका के बीच की आपसी तनातनी सामने आ गई है।
एक ओर जहां कानून मंत्री किरन रिजिजू कई बार ये कह चुके हैं कि कॉलेजियम सिस्टम में पारदर्शिता और जवाबदेही की कमी है। वहीं न्यायपालिका की भी यही शिकायत होती है कि सरकार उनके सुझाए नामों पर फ़ैसला लेने में देरी करती है।
कॉलेजियम सिस्टम क्या है ?
साल 1993 से जजों की नियुक्ति के लिए देश में कॉलेजियम सिस्टम लागू है।
कॉलेजियम सिस्टम से सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट के जजों की नियुक्ति और तबादले किए जाते हैं।
सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस के साथ 4 वरिष्ठ जज इस कॉलेजियम सिस्टम का हिस्सा होते हैं।
ये कॉलेजियम जजों की नियुक्ति और उनके ट्रांसफर की सिफारिश केंद्र सरकार से करता है।
हाईकोर्ट कॉलेजियम में सीजेआई के साथ हाईकोर्ट के दो वरिष्ठ जज शामिल होते हैं।
कॉलेजियम सिस्टम के लिए संविधान में कोई दिशा-निर्देश नहीं हैं।
ये सुप्रीम कोर्ट के फैसलों से उपजा एक सिस्टम है-
कॉलेजियम सिस्टम में केंद्र सरकार की केवल इतनी भूमिका है कि अगर किसी वकील का नाम हाईकोर्ट या सुप्रीम कोर्ट में जज बनाने के लिए आता है तो सरकार इंटेलिजेंस ब्यूरो से उनके बारे में जानकारी भर ले सकती है।
केंद्र सरकार कॉलेजियम की ओर से आए नामों पर अपनी आपत्ति जता सकता है।
केंद्र सरकार आपत्ति और स्पष्टीकरण मांग सकता है-
अगर कॉलेजियम फिर से उन नामों को सरकार के पास भेजता है, सरकार उन्हें मानने के लिए बाध्य होती है।
कानून मंत्रालय से मंजूरी मिलने के बाद राष्ट्रपति की मुहर से जजों की नियुक्ति होती है।
कैसे पड़ी कॉलेजियम सिस्टम की बुनियाद ?
साल 1993 से पहले कॉलेजियम सिस्टम के बिना जजों की नियुक्ति की जाती थी। आजादी के बाद से 1993 तक सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट में जजों की नियुक्ति सरकार ही करती थी।1993 तक सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस की सलाह पर राष्ट्रपति जजों की नियुक्ति करते थे। भारत के मुख्य न्यायाधीश के परामर्श और केंद्रीय कानून मंत्रालय नियुक्ति करते थे। पहला केस 1981 का है जिसे एसपी गुप्ता केस नाम से भी जाना जाता है ।इस मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि जजों की नियुक्ति के लिए चीफ़ जस्टिस के पास एकाधिकार नहीं होना चाहिए।
सुप्रीम कोर्ट ने इस बात की ओर इशारा किया गया कि इसमें सरकार की भी भूमिका होनी चाहिए। वहीं 1993 में दूसरे केस में नौ जजों की एक बेंच ने कहा कि जजों की नियुक्तियों में चीफ़ जस्टिस की राय को बाकी लोगों की राय के ऊपर तरजीह दी जाए। इसके बाद 1998 में तीसरे केस में सुप्रीम कोर्ट ने कॉलेजियम का आकार बड़ा करते हुए इसे पाँच जजों का एक समूह बना दिया।
कॉलेजियम सिस्टम पर विवाद क्यों ?
सरकार और न्यायपालिका के बीच तनातनी की शुरूआत साल 2014 में हुई।
मोदी के नेतृत्व में देश में जब NDA सरकार बनी तो केंद्र सरकार साल 2014 में ही संविधान में 99वाँ संशोधन करके एनजेएसी अधिनियम लाई।
सरकार ने कहा- चीफ़ जस्टिस और सुप्रीम कोर्ट- हाई कोर्ट में जजों के नियुक्ति पर बदलाव हो।
जजों की नियुक्ति के लिए कॉलेजियम की जगह एनजेएसी के प्रावधानों के तहत काम की मांग।
इस कमीशन में छह लोगों को सदस्य बनाने का प्रावधान किया गया है।
चीफ़ जस्टिस ऑफ़ इंडिया, केंद्रीय क़ानून मंत्री, सुप्रीम कोर्ट के दो वरिष्ठतम जस्टिस, दो विशेषज्ञ को शामिल किया गया। यह प्रावधान भी किया गया कि दो विशेषज्ञ सदस्य हर तीन साल पर बदलते रहेंगे। 2014 में संविधान में संशोधन करके केंद्र सरकार ने कुछ और अहम बदलाव किए। बदलाव ये था कि संसद को जजों की नियुक्ति का अधिकार दिया गया।
संसद सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट के जजों की नियुक्ति से जुड़े नियम बना सकता है या उनमें फेरबदल कर सकता है।
जिसके बाद अक्टूबर 2015 को सुप्रीम कोर्ट ने इसे रद्द कर दिया। नेशनल ज्युडिशियल अप्वाइंटमेंट्स कमीशन अधिनियम को “संविधान के आधारभूत ढांचे से छेड़छाड़ बताते हुए रद्द किया गया। तब से अब तक कॉलेजियम सिस्टम को लेकर सरकार और न्यायपालिका के बीच टकराव।
कॉलेजियम में परिवारवाद के आरोप-
बीते लंबे वक़्त से यह बहस समय-समय पर उठती रहती है कि सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट में जज चुने जाने की प्रक्रिया में भयंकर भाई-भतीजावाद है। जिसे न्यायपालिका में ‘अंकल कल्चर’ कहते है, यानी ऐसे लोगों को जज चुने जाने की संभावना ज़्यादा होती है। जिनकी जान-पहचान के लोग पहले से ही न्यायपालिका में ऊँचे पदों पर हैं। कॉलेजियम भारत के चीफ़ जस्टिस और सुप्रीम कोर्ट के चार वरिष्ठतम जजों का एक समूह है। ये पाँच लोग मिलकर तय करते हैं कि सुप्रीम कोर्ट में कौन जज होगा। ये नियुक्तियाँ हाई कोर्ट से की जाती हैं और सीधे तौर पर भी किसी अनुभवी वकील को भी हाई कोर्ट का जज नियुक्त किया जा सकता है। हाई कोर्ट में जजों की नियुक्ति भी कॉलेजियम की सलाह से होती है। जिसमें सुप्रीम कोर्ट के चीफ़ जस्टिस, हाई कोर्ट के चीफ़ जस्टिस और राज्य के राज्यपाल शामिल होते हैं। कॉलेजियम बहुत पुराना सिस्टम नहीं है और इसके अस्तित्व में आने के लिए सुप्रीम कोर्ट के तीन फ़ैसले ज़िम्मेदार हैं। जिन्हें ‘जजेस केस’ के नाम से जाना जाता है।
क्या खत्म किया जा सकता है कॉलेजियम सिस्टम ?
कॉलेजियम सिस्टम को खत्म करने के लिए केंद्र को संवैधानिक संशोधन की जरूरत होगी। केंद्र सरकार को संसद के दोनों सदनों का बहुमत मिलना जरूरी। लोकसभा और राज्यसभा में होने वाली वोटिंग में दो-तिहाई सांसदों का बहुमत मिलना चाहिए। इसके साथ ही इस संशोधन को देश के कम से कम आधे राज्यों के समर्थन की भी जरूरत होगी। वर्तमान की स्थिति को देखते हुए केंद्र सरकार के लिए ये मुमकिन नहीं।